थाने में अमूमन हेड कांस्टेबल बगैर किसी कानूनी ज्ञान के एफ आई आर दर्ज करता है जिस विवेचक को विवेचना करनी होती है अराजपत्रित पुलिसकर्मी के भोजन का समय नियत नहीं है आदि-आदि पुलिसकर्मियों की तमाम समस्याएं हैं
लखनऊ : आवाज़ — ए — लखनऊ ! अनिल मेहता”- वर्तमान में देखने में आ रहा है कि किसी की आत्मसंतुष्टि के लिए किसी भी थानाध्यक्ष, उपनिरीक्षक, सिपाहियों को बलि का बकरा बना दिया जा रहा है।खास तौर से जब कोई राजनीतिक नेता, संगठन,या कोई रसूखदार, पुलिसकर्मी पर आरोप लगता है उनकी संतुष्टी के लिए पुलिसकर्मी को सजा मिल जाती है इसलिए अपराधियों पर से पुलिस का खौफ समाप्त होता जा रहा है, क्यों कि अपराधी जानता है कि वह आसानी से जांच करने वाले पुलिसकर्मी पर दबाव बना लेगा वंह दबाव किसी का भी हो सकता है, सत्यता तो यह है कि उ०प्र० पुलिस भारी दबाव में कर रही है।
ऐसे में पुलिस का इकबाल तो समाप्त होगा ही, पुलिस विभाग में तमाम विरोधाभास भी है, पहली बात आई पी एस,पीपीएस का कार्यालय आने का समय नहीं नियत है, अराजपत्रित पुलिसकर्मी का कार्यालय आने का समय नहीं निश्चित है, थाने में अमूमन हेड कांस्टेबल बगैर किसी कानूनी ज्ञान के एफ आई आर दर्ज करता है जिस विवेचक को विवेचना करनी होती है अराजपत्रित पुलिसकर्मी के भोजन का समय नियत नहीं है आदि-आदि पुलिसकर्मियों की तमाम समस्याएं हैं
जिन पर न तो उ०प्र० सरकार ध्यान देती है,न ही पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी उ०प्र०सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं ऊपर से थानाध्यक्ष, उपनिरीक्षक, सिपाहियों को सजा देने में बिल्कुल विलम्ब नहीं होता प्रश्न यह उठता है कि जितनी जल्दी पुलिसकर्मियों को सजायें मिलती हैं उतनी तेजी से पुलिसकर्मियों की सुविधाओं का ध्यान क्यों नहीं रक्खा जाता?अंत में अपने पहले प्रश्न पर आता हूं जितनी तेजी पुलिसकर्मियों को सज़ा दिखाई जाती है अन्य कार्यों में क्यों नहीं?