चावल के स्टार्च से बनेगी बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक, खाद का काम भी करेगी, जानें क्या होगा फायदा

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में धान यानी चावल के स्टार्च से बायोडिग्रेडेबल (प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाने वाला) पालीथिन या प्लास्टिक बनाई जाएगी। विश्वविद्यालय के बायोटेक्नोलाजी विभाग में अनुसंधान के दौरान इसका प्रारंभिक प्रयोग सफल हुआ है।

 

रायपुर। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में धान यानी चावल के स्टार्च से बायोडिग्रेडेबल (प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाने वाला) पालीथिन या प्लास्टिक बनाई जाएगी। विश्वविद्यालय के बायोटेक्नोलाजी विभाग में अनुसंधान के दौरान इसका प्रारंभिक प्रयोग सफल हुआ है। प्रयोग में बने उत्पाद को उन्नत करने और बाजार में भेजने लायक बनाने के लिए कृषि विवि और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई यानी बार्क के मध्य संयुक्त अनुसंधान को तीन वर्षीय अनुबंध किया गया है। इस बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक को मिट्टी में गाड़ देने पर खुद-ब-खुद नष्ट होकर खाद बन जाएगी, जिसका इस्तेमाल बगीचों या फसलों में किया जा सकेगा। इससे पर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा। इससे बनाए गए बैग में फल-सब्जी, घर का अन्य सामान लाने के साथ ही गरम खाना भी पैक किया जा सकेगा।

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बार्क में उत्पाद को उन्नत करने पर होगा अनुसंधान

अनुसंधान से जुड़े विज्ञानियों के अनुसार कृषि विश्वविद्यालय में प्रयोग के बाद बनाई गई पालीमर की फिल्म पर कंपोस्टेबल बायोडिग्रेडेबल पालीबैग बनाने के लिए बार्क में अनुसंधान होगा। विश्वविद्यालय के पास फिलहाल कंपोस्टेबल बायोडिग्रेडेबल कैरीबैग बनाने की मशीन नहीं है, इसलिए बार्क की मदद से इसके अनुसंधान के साथ-साथ उत्पादन का कार्य चलेगा। बार्क के पास अत्याधुनिक मशीनें हैं जो कृषि विश्वविद्यालय में प्रारंभिक प्रयोग के बाद तैयार पालीमर फिल्म की मोटाई को और कम करके इसे आमजन के प्रयोग लायक बायोडिग्रेडेबल कैरीबैग बनाने में मदद करेंगी। उम्मीद है कि छह माह से एक साल के भीतर बाजार में उतारने लायक बैग का मैटीरियल तैयार हो जाएगा। इसके बाद कंपनियों से बात करके इसके कामर्शियल उत्पादन की तैयारी है।

मक्का पर भी हो चुका है प्रयोग

विश्वविद्यालय में इसके पहले मक्का से निकलने वाले स्टार्च से पालीथिन बनाने का सफल प्रयोग किया जा चुका है। हालांकि पालीमर की मोटाई अधिक होने व छत्तीसगढ़ में मक्का की पैदावार अपेक्षाकृत कम होने के कारण इन बैग की लागत को कम करने में सफलता नहीं मिल सकी। इसी कारण अब धान पर प्रयोग किया गया क्योंकि राज्य में धान की पैदावार अधिक है। बता दें, राज्य सरकार की मंशा के अनुसार छत्तीसगढ़ में धान से एथेनाल और प्रोटीन पाउडर बनाने पर पहले ही काम चल रहा है।

बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक क्या है

बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक प्राकृतिक सामग्री या फिर पेट्रोकेमिकल संसाधनों से बनाई जाती है, जिसमें सामान्य प्लास्टिक में पाए जाने वाले केमिकल्स नहीं होते। हालांकि बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक से महंगी होती है। कृषि विश्वविद्यालय इसकी कीमत कम रखने पर भी काम कर रहा है।

20 फीसद धान का होगा सदुपयोग

छत्तीसगढ़ में लगभग 13 मिलियन टन धान का उत्पादन हो रहा है। इसमें 8.5 मिलियन टन धान की खरीदारी सरकार करती है, लेकिन इसके करीब 20 फीसद धान का मिलों के लिए उठाव नहीं हो पाता। ऐसे में धान के इस्तेमाल के विकल्पों पर यह अनुसंधान कारगर साबित हो सकता है।

धान की किस्मों में छत्तीसगढ़ पहले स्थान पर

धान की किस्मों में छत्तीसगढ़ देश में पहले स्थान पर है। यहां 23 हजार 250 किस्में हैं। प्रदेश में साल 1904 से लाभांडी फार्म रायपुर में धान पर अनुसंधान चल रहा है। 1913 में पहली बार यहां धान की किस्म ईबी-17 निकाली गई थी। अब तक 85 उन्नत धान की किस्में विकसित हो चुकी हैं।

चावल के स्टार्च से बायोडिग्रेडेबल पालीथिन या प्लास्टिक बनाने के लिए अनुसंधान कार्य किया जा रहा है। इसके लिए बार्क से तीन साल का अनुबंध किया गया है।

– डा. एसके पाटिल, कुलपति, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय

पहले चावल से स्टार्च निकालते हैं। इसमें कई तरह के अम्ल डालते हैं। इसका घोल बनाकर एक मशीन में एक उचित तापमान और दबाव में पालीमर बनाया जाता है। फिर इसे फिल्म के रूप में फैलाते हैं। इसी फिल्म को प्लास्टिक के रूप में निर्मित किया जाता है।

प्रो. डा. सतीश वेरुलकर, बायोटेक्नोलाजी विभाग, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय

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