अखिलेश आरोप लगाते हैं कि मायावती भाजपा से नहीं लड़तीं वह तो अपनी एक बनाई हुई जेल में कैद हैं और उन्हें लगता है कि उनका जेलर दिल्ली में बैठा हुआ है। बसपा का नाम लिए बिना उसे भाजपा का लाउडस्पीकर बताते हुए कहा कि ‘इनका माइक कहीं और है।
लखनऊ, पुरानी कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, लेकिन यह तो उत्तर प्रदेश है। चाहे मुख्य विपक्षी पार्टी सपा हो या बसपा या फिर कांग्रेस, इनमें यह दिखाने की होड़ जरूर मची है कि भाजपा का विजय रथ रोकने में वे ही सक्षम हैं, लेकिन यदि विपक्षी एकता की मुहिम चला रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यहां उनमें एकता की संभावनाएं देखें तो उन्हें निराशा हासिल हो सकती है। यहां विपक्षी ही एक-दूसरे के दुश्मन हैं।
विधानसभा चुनाव को छह माह होने जा रहे हैं। सभी दलों की नजर स्वाभाविक तौर पर आगामी लोकसभा चुनाव पर है। विपक्ष के सामने राज्य की 80 सीटों पर भाजपा से पार पाने की चुनौती भी है, लेकिन जिस तरह से सपा और बसपा नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर गंभीर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं, उससे फिलहाल तो दोनों दूर-दूर तक साथ-साथ आते नहीं दिख रहे हैं। पड़ोसी राज्य बिहार के हालिया सियासी घटनाक्रम से भी विपक्षी कुछ सीखते नहीं दिखते, जहां धुर विरोधी लालू-नीतीश ने अपने ‘दुश्मन’ से निपटने के लिए हाथ मिलाया और भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
ऐसा नहीं है कि यहां पहले कभी कोई ऐसा प्रयोग नहीं हुआ। वर्ष 1992 में कल्याण सिंह की सरकार जाने के बाद गठबंधन की ही सरकारें राज्य में बनती रहीं। एक-दूसरे के समर्थन से सरकार बनाने-गिराने का दौर डेढ़ दशक बाद वर्ष 2007 में बसपा के 403 में से अकेले दम पर 206 विधानसभा सीटें जीतने के साथ थमा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी सपा और कांग्रेस मिले, लेकिन भाजपा को डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने से रोक नहीं सके।
एक दशक पहले सपा से मुकाबले में सूबे की सत्ता से बाहर होने वाली बसपा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के आगे शून्य पर सिमटकर रह गई और वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी हाशिये पर ही रही। तब कहीं वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की हिम्मत मायावती नहीं जुटा सकीं। बसपा प्रमुख ने मजबूरी में ही सही, लेकिन सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव से पुरानी दुश्मनी भुलाकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव से हाथ मिलाया।
सपा-बसपा और रालोद के साथ आने से भाजपा गठबंधन जहां 72 से घटकर 64 लोकसभा सीटों पर आ गया, वहीं बसपा शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई। सपा पांच पर और अलग लड़ी कांग्रेस सिर्फ एक सीट ही जीतने में कामयाब रही। बीते विधानसभा चुनाव में सपा ने भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने के बड़े-बड़े दावे किए। पश्चिम से रालोद और पूर्वांचल में प्रभाव रखने वाली सुभासपा सहित अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर ताल ठोंकी, लेकिन भाजपा को सत्ता में वापसी से न रोक सकी।
विपक्षी गठबंधन 125 पर सिमट गया तो अलग लड़ी बसपा एक और कांग्रेस एक सीट ही पा सकी। भाजपा यहां पूरे विपक्ष के निशाने पर है, लेकिन सपा-बसपा के तीर एक-दूसरे पर ही गिर रहे हैं। हाल में मुस्लिम बहुल रामपुर व आजमगढ़ लोकसभा सीट के उपचुनाव में जिस तरह से सपा को अपनी दोनों सीटें गंवानी पड़ीं, उससे बसपा को लोकसभा चुनाव में अपने लिए संभावनाओं की नई जमीन दिखने लगी है। बसपा प्रमुख मायावती यही बताने की कोशिश में जुटी हैं कि सपा नहीं, बल्कि बसपा ही भाजपा के विजय रथ को रोकने में सक्षम है। मायावती सपा पर भाजपा से मिले होने का आरोप लगाते हुए मुस्लिम समाज को यही बताने की कोशिश में हैं कि सपा का साथ देकर मुस्लिम समाज ने बड़ी भूल की है।
मायावती पीएम बनाने संबंधी अखिलेश के बयान पर भी तंज करती हैं, ‘सपा मुखिया उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और यादव समाज का पूरा वोट व कई पार्टियों से गठबंधन कर भी जब अपना सीएम बनने का सपना पूरा नहीं कर सके, तो दूसरे को पीएम बनाने के सपने को क्या पूरा करेंगे।’ अखिलेश भी मायावती पर हमले करने में पीछे नहीं हैं। सपा प्रमुख कहते हैं कि बसपा वही करती है जो भाजपा उसे करने के लिए कहती है, इसीलिए मायावती के निशाने पर भाजपा नहीं, सपा होती है।
अखिलेश आरोप लगाते हैं कि मायावती भाजपा से नहीं लड़तीं, वह तो अपनी एक बनाई हुई जेल में कैद हैं और उन्हें लगता है कि उनका जेलर दिल्ली में बैठा हुआ है। बसपा का नाम लिए बिना उसे भाजपा का लाउडस्पीकर बताते हुए अखिलेश ट्वीट करते हैं कि ‘इनका माइक कहीं और है। ऐसे नालबद्ध दलों को आक्रोशित जनता 2024 के चुनाव में सबक सिखाएगी।’ दोनों ही दल समझते हैं कि मुस्लिम समुदाय उस पार्टी के साथ नहीं जाएगा जो उसे भाजपा के साथ लगेगा। जिसे मुस्लिम समाज का साथ मिलेगा वही चुनावी बाजी मारने में आगे रहेगा। पिछले चुनाव में सिर्फ एक सीट रायबरेली तक सिमट चुकी कांग्रेस के सामने तो इस सीट पर कब्जा जमाए रखने की ही बड़ी चुनौती दिख रही है।