कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा बुधवार सुबह 6 बजे यूपी के बागपत से शुरू हुई। आज शाम ये यात्रा शामली पहुंचेगी। अब सवाल यह है कि इस यात्रा से क्या यूपी की राजनीति में कुछ असर पड़ेगा।
बागपत : कुछ दिन के आराम के बाद मंगलवार को शुरू हुई कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के बागपत पहुंचने से पहले ही यात्रा की अगुवाई कर रहे राहुल गांधी भले ही दिल्ली लौट गए हों, लेकिन अपने पीछे कई सुलगते सवाल छोड़ गए। यात्रा में पहुंचे छोटे-बड़े नेताओं की जुबान पर यह यक्ष प्रश्न तैरता रहा कि पिछले 30 साल से पश्चिम उत्तर प्रदेश में लगभग नैपथ्य में पहुंच चुकी कांग्रेस ने आखिर गाजियाबाद, बागपत और शामली को ही क्यों चुना? राजनीतिक विश्लेषक जहां इसे दलित-मुस्लिम के साथ-साथ अपने परंपरागत मतदाताओं को साधने की कवायद करार दे रहे हैं, वहीं खांटी कांग्रेसी इसे यात्रा की शेष बची कम दूरी को तय समय में पूरा करने का तकनीकी कारण बता रहे हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि इन तीन जिलों से शुरू हुई कवायद क्या समूचे प्रदेश में असर दिखा पाएगी?
इन जिलों को चुनने का कारण- जातिगत समीकरण साधनासियासी गलियारों में कहावत आम है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा गाजियाबाद के बाद बागपत और शामली के 11 विधानसभा क्षेत्रों से गुजर रही है। यात्रा की दूरी 130 किलोमीटर रहेगी। कांग्रेस महंगाई, बेरोजगारी, एमएसपी, आर्थिक असमानता, नफरत छोड़ो सबको जोड़ो, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों को लेकर बीजेपी के खिलाफ आक्रामक है। लेकिन, राजनीति में कद के हिसाब से यात्रा यूपी में दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत छोटी मानी जा रही है। हालांकि, कांग्रेसी झंडाबरदार मानते हैं कि उनकी तीन जिलों की यात्रा का असर यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर पड़ना तय है। इसके पीछे उनका तर्क है कि वेस्ट यूपी के जिन तीन जिलों गाजियाबाद, बागपत और शामली से यह यात्रा गुजरेगी, वहां मुस्लिम आबादी सबसे ज्यादा, दूसरे नंबर पर दलितों की आबादी और तीसरे नंबर पर जाट समुदाय के लोग आते हैं। इन तीन जिलों का चुनाव न केवल सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है, बल्कि यूपी के तीनों प्रमुख दलों सपा, बसपा और रालोद के वोटबैंक को अपने पाले में करने का अच्छा मौका है।
1996 के बाद कांग्रेस बागपत लोकसभा नहीं जीत सकीतर्कों से इतर अगर इतिहास के पन्नों को जरा पलटें तो बागपत लोकसभा से वर्ष 1996 में आखिरी बार स्वर्गीय चौधरी अजित सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत दिलाई थी। उसके बाद वह लगातार रालोद से चुनाव लड़े। इस जीत में भी पंजे का साथ कम, बल्कि बड़े चौधरी की साख और चौधरी अजित सिंह का अपना जनाधार ज्यादा था। विधानसभा चुनावों में भी 1993 में नवाब कोकब हमीद बागपत से कांग्रेस के आखिरी विधायक बने, जबकि 1969 में बड़ौत से विक्रम सिंह ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी। ऐसा ही हाल शामली जिले की कैराना लोकसभा सीट का रहा। यहां कांग्रेस से आखिरी बार 1984 में अख्तर हसन सांसद रहे। विधानसभा चुनावों में भी हाल जुदा नहीं रहा। कैराना सीट से 1985 में गुर्जर नेता स्वर्गीय हुकुम सिंह कांग्रेस से जीते, जबकि इसके बाद उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया था। फिर हुकुम सिंह तो तीन बार जीतकर विधायक बने, लेकिन कांग्रेस लगातार हारी।
विधानसभा के चुनाव में भी जीत कई वर्षों पहलेवहीं, थानाभवन विस सीट से भी 11वीं विधानसभा में ठाकुर नकली सिंह के बूते कांग्रेस ने आखिरी बार जीत हासिल की। शामली विधानसभा सीट की बात करें तो नए विधानसभा परिसीमन के बाद 2012 के चुनाव में कांग्रेस के सिंबल पर पंकज मलिक विधायक बने। इस जीत में भी पूर्व राज्यसभा सदस्य हरेंद्र मलिक और पंकज मलिक की जाट बहुल सीट पर निजी ताकत काम आई। मोदी लहर में कांग्रेस के पंकज मलिक भाजपा के तेजेंद्र निर्वाल से हारे।
खोई जमीन हासिल करना बड़ी चुनौतीवर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में पंकज मलिक ने पिता हरेंद्र मलिक के साथ समाजवादी पार्टी का दामन थामा और चरथावल सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। बहरहाल, दो दिन यूपी की राजनीति के लिहाज से सबसे अहम बागपत व शामली में बीतेंगे। भारत जोड़ो यात्रा के जरिए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कितना सफल होंगे ये तो वक्त ही बताएगा? लेकिन, कड़वा सच यह भी है कि कांग्रेस को बागपत में 27 साल तो कैराना में 39 साल से अपनी खोई जमीन नहीं मिल सकी है। हालांकि, इस क्षेत्र में यात्रा के लिए भारतीय किसान यूनियन का साथ कांग्रेसियों को थोड़ा सुकून जरूर दे सकता है।