ब्रह्मांड में चक्कर लगाते ग्रह हमेशा से ही हर किसी का ध्यान अपनी तरफ खींचते आए हैं। वहीं उल्का पिंड भी वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से दिलचस्प रहे हैं। लेकिन इन दोनों के आकार में काफी कुछ अंतर होता है।
सिडनी (पीटीआई)। अंतरिक्ष का अध्ययन करते समय हम सबने देखा है कि ग्रह और तारे सामान्यत: आकृति में गोल होते हैं। वहीं उल्का पिंड ऊबड़-खाबड़ व बेतरतीब से होते हैं। ऐसे में कई बार यह सवाल मन में आता है कि आखिर इसकी वजह क्या है? वह कौन सा कलाकार है, जो बैठकर ग्रहों और तारों को तराशता है। आस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी आफ सदर्न क्वींसलैंड के एस्ट्रोफिजिक्स के प्रोफेसर जांटी होर्नर ने इसका जवाब दिया है।
गुरुत्वाकर्षण बल की अहम भूमिका
ग्रहों जैसी बड़ी संरचनाओं की आकृति के पीछे गुरुत्वाकर्षण बल की अहम भूमिका है। कोई पिंड या ग्रह जितना बड़ा होता है, उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी उसी तरह बढ़ती जाती है। यही गुरुत्वाकर्षण उसके कणों को केंद्र की तरफ खींचता है। वहीं ठोस वस्तुओं की अपनी प्रकृति होती है, जिस कारण वे उस गुरुत्वाकर्षण के विपरीत बल लगाते हैं।
जीतने वाली ताकत तय करती है आकृति
गुरुत्वाकर्षण और ठोस वस्तुओं की प्रकृति के बीच लड़ाई में जीतने वाली ताकत से आकृति तय होती है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य आकार में बहुत छोटा होता है। हमारे शरीर के गुरुत्वाकर्षण बल की तुलना में हमारे शरीर की क्षमता बहुत ज्यादा है। इसी कारण गोल न होकर हमारे शरीर की अपनी संरचना बनी रहती है। इसी तरह उल्का पिंड आदि आकार में छोटे होते हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण बल इनके कणों को अंदर खींचकर गोल नहीं बना पाता है और इनकी संरचना ऊबड़-खाबड़ रह जाती है। ग्रह और तारे अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा बड़े होते हैं, इसलिए गोल होते जाते हैं।
पदार्थ पर भी निर्भर करती है आकृति
कितना बड़ा होने पर अंतरिक्ष में कोई पिंड गोल हो जाएगा, यह इस पर भी निर्भर करता है कि वह किस पदार्थ से बना है। उदाहरण के तौर पर, लोहे की अधिकता वाले पिंड को गोल होने के लिए बहुत ज्यादा बड़ा होना पड़ेगा। हमारी सौर व्यवस्था में किसी बर्फीले पिंड को गोल होने के लिए कम से कम 400 किलोमीटर व्यास जरूरी है। जैसे-जैसे उसमें मौजूद पदार्थ मजबूत होता जाएगा, यह न्यूनतम व्यास बढ़ता जाएगा। शनि ग्रह का चांद मिमास 396 किलोमीटर व्यास के साथ आकृति में गोल है। यह इस मामले में हमारी सौर व्यवस्था में अब तक ज्ञात सबसे छोटा पिंड है।