डोनर किडनी की गुणवत्ता परखने का खोजा गया नया तरीका, अब ज्यादा सुरक्षित होगा प्रत्यारोपण

शोधकर्ताओं ने पहली बार इसके लिए सरफेस-एन्हांस्ड रामन स्कैटेरिंग (एसईआरएस) का इस्तेमाल कर एक साथ किडनी के दो अतिसंवेदनशील इंज्यूरी बायोमार्कर्स का पता लगाया है। उन्होंने यह भी बताया है कि क्लिनिकल प्रयोग के लिए एसईआरएस स्पेक्ट्रोस्कोपी को ज्यादा व्यावहारिक बनाया।

 

वाशिंगटन, देश-दुनिया में किडनी डोनरों की तो वैसे ही कमी है। प्रत्यारोपण के लिए जो किडनी मिलती भी है, उसकी गुणवत्ता को लेकर संशय बना रहता है। इस समस्या से निजात पाने की दिशा में शोधकर्ताओं ने एक नया तरीका विकसित किया है, जिससे प्रत्यारोपण से पहले किडनी की गुणवत्ता के बारे में पता किया जा सकता है। इससे उपयोग लायक डोनर किडनी की संख्या बढ़ाने में मदद मिलेगी। यह अध्ययन आप्टिक्स एक्सप्रेस जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

शोध टीम की अगुआई करने वाली चीन में शंघाई स्थित चांगहाई अस्पताल से संबद्ध मिंगक्सिंग सुई ने बताया कि इन दिनों ऐसा कोई तरीका नहीं है, जिससे डोनर किडनी की इंज्यूरी का सही-सही आकलन किया जा सके। यदि ऐसा संभव हो तो प्रत्यारोपण के परिणाम का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और प्रत्यारोपित कराने वाले रोगियों में उसके रिजेक्शन का खतरा कम हो सकता है। इसलिए हम चाहते थे कि कोई एक ऐसा नया तरीका खोजा जाए ताकि डोनर किडनी की गुणवत्ता बिना किसी आपरेशन (नानइन्वैसिवली) के पता किया जा सके।

शोधकर्ताओं ने पहली बार इसके लिए सरफेस-एन्हांस्ड रामन स्कैटेरिंग (एसईआरएस) का इस्तेमाल कर एक साथ किडनी के दो अतिसंवेदनशील इंज्यूरी बायोमार्कर्स का पता लगाया है। उन्होंने यह भी बताया है कि क्लिनिकल प्रयोग के लिए एसईआरएस स्पेक्ट्रोस्कोपी को ज्यादा व्यावहारिक बनाया।

गुणवत्ता का किया जा सकता है मूल्यांकन

सुई ने बताया कि यह बहुत ही संवेदनशील एसईआरएस आधारित मल्टीप्लेक्सिंग तकनीक है, जो डोनर की किडनी के इंज्यूरी से जुड़े सूक्ष्म से सूक्ष्म बदलाव भी बायोमार्कर की अभिव्यक्ति में सामने आ जाते हैं। इससे डोनर की किडनी का क्लिनिकल उपयोग के लिए उसकी गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जा सकता है।

जब किसी मृत व्यक्ति की किडनी डोनेट की जाती है तो किडनी का स्वास्थ्य परखने के लिए उसकी बायोप्सी की जाती है। यह प्रक्रिया न सिर्फ इन्वेसिव (छेद के जरिये) और ज्यादा समय लेती है, बल्कि कई डोनर किडनी खराब भी हो जाती है। शोध में यह भी सामने आया है कि बायोप्सी के निष्कर्ष से हर बार यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि प्रत्यारोपण के बाद किडनी का कामकाज कितना अच्छा रहेगा।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने रक्त और पेशाब में स्त्रावित होने वाले ल्यूकोसाइट्स पेप्टिडेज इन्हिबिटर (एसएलपीआइ) और इंटरल्यूकिन 18 (आइएल-18) की पहचान बायोमार्कर के रूप में की है। इसके इस्तेमाल से किडनी इंजरी का लक्षित मूल्यांकन किया जा सकता है।

यद्यपि इन बायोमार्करों की पहचान के लिए कई विधियों को आजमाया गया, लेकिन उन सभी में सीमित संवेदनशीलता, मल्टीप्लेक्सिंग की कमी, सैंपल तैयार करने की जटिलता या ज्यादा खर्च होता है।

सुई की शोध टीम ने यह पता लगाना चाहती थी कि क्या एसईआरएस इन बायोमार्करों की पहचान का बेहतर तरीका हो सकता है। इस नए वाइब्रेशनल स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक से सिंगल मालीक्यूल संवेदनशीलता को आसानी से पता किया जा सकता है और एकल प्रयोग में कई बायोमार्करों की पहचान की जा सकती है।

नई विधि में खास क्या

इसमें नैनोस्ट्रक्चर का इस्तेमाल कर रामन स्कैटेरिंग को बढ़ाया जाता है। यह तब होता है, जब मालीक्यूल्स एक धातु की सतह पर अवशोषित हो जाते हैं। यह स्कैटेरिंग एक प्रकार का स्पेक्ट्रल फिंगरप्रिंट का निर्माण करता है, जो हर मालीक्यूल के लिए अनोखा होता है।

हालांकि एसईआरएस को प्रयोगशाला से निकाल कर क्लिनिकल इस्तेमाल में में लाने के लिए उसकी संवेदनशीलता में सुधार और उसके उत्पादन को भी सरल करने की जरूरत थी।

शोधकर्ताओं ने इस जरूरत को एक नए हाइब्रिड एसईआरएस सब्स्ट्रैट के जरिये पूरा किया, जिसमें सोने के नैनो मालीक्यूल्स को एक नए 2डी नैनोमटैरियल के साथ जोड़ा गया है जिसे ब्लैक फास्फोरस कहा जाता है।

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