अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। फाजिलनगर के पास ग्राम जोगिया जनूबी पट्टी में भी एक अति प्राचीन मंदिर के अवशेष हैं जहां बुद्ध की अतिप्रचीन मूर्ति खंडित अवस्था में पड़ी है। गांव वाले इस मूर्ति को ‘जोगीर बाबा’ कहते हैं।
उत्तर प्रदेश [ भगवन्त यादव संवाददाता ] कुशीनगर का इतिहास प्राचीनतम व गौरवशाली है। तथागत महात्मा गौतम बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। प्राचीन काल में यह नगर सैथवारमल्ल वंश की राजधानी तथा 16 महाजनपदों में एक था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान के यात्रा वृत्तातों में भी इस प्राचीन नगर का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह स्थान त्रेता युग में भी आबाद था और यहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्र कुश की राजधानी थी जिसके चलते इसे ‘कुशावती’ नाम से जाना गया। पालि साहित्य के ग्रंथ त्रिपिटक के अनुसार बौद्ध काल में यह स्थान सोलह महाजनपदों में से एक था। मल्ल राजाओं की यह राजधानी तब ‘कुशीनारा’ के नाम से जानी जाती थी। ईसापूर्व पांचवी शताब्दी के अन्त तक या छठी शताब्दी की शुरूआत में यहां भगवान बुद्ध का आगमन हुआ था। कुशीनगर में ही उन्होंने अपना अंतिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्वाण को प्राप्त किया था।
इस प्राचीन स्थान को चर्चा तथा प्रकाशवान बनाने के श्रेय जनरल ए कनिंघम और ए. सी. एल. कार्लाइल को जाता है जिन्होंनें 1861 में इस स्थान की खुदाई करवाई। खुदाई में छठी शताब्दी की बनी भगवान बुद्ध की लेटी प्रतिमा मिली थी। इसके अलावा रामाभार स्तूप और और माथाकुंवर मंदिर भी खोजे गए थे। 1904 से 1912 के बीच इस स्थान के प्राचीन महत्व को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने अनेक स्थानों पर खुदाई करवाई। प्राचीन काल के अनेक मंदिरों और मठों को यहां देखा जा सकता है।
कुशीनगर जिले का फाजिलनगर के ‘छठियांव’ नामक गांव में किसी ने भोजन कराते समय महात्मा बुद्ध को सूअर का कच्चा मांस खिला दिया था जिसके कारण उन्हें दस्त की बीमारी शुरू हुई और मल्लों की राजधानी कुशीनगर तक जाते-जाते वे निर्वाण को प्राप्त हुए। फाजिलनगर में आज भी कई टीले हैं जहां गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से कुछ खुदाई का काम कराया गया है और अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। फाजिलनगर के पास ग्राम जोगिया जनूबी पट्टी में भी एक अति प्राचीन मंदिर के अवशेष हैं जहां बुद्ध की अतिप्रचीन मूर्ति खंडित अवस्था में पड़ी है। गांव वाले इस मूर्ति को ‘जोगीर बाबा’ कहते हैं। संभवत: जोगीर बाबा के नाम पर इस गांव का नाम जोगिया पड़ा है। जोगिया गांव के कुछ जुझारू लोग `लोकरंग सांस्कृतिक समिति´ के नाम से जोगीर बाबा के स्थान के पास प्रतिवर्ष मई माह में `लोकरंग´ कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसमें देश के महत्वपूर्ण साहित्यकार एवं सैकड़ों लोक कलाकार सम्मिलित होते हैं।
कुशीनगर से 16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में मल्लों का एक और गणराज्य पावा था। यहाँ बौद्ध धर्म के समानांतर ही जैन धर्म का प्रभाव था। माना जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ( जो बुद्ध के समकालीन थे) ने पावानगर (वर्तमान में फाजिलनगर ) में ही परिनिर्वाण प्राप्त किया था। इन दो धर्मों के अलावा प्राचीन काल से ही यह स्थल हिंदू धर्मावलंम्बियों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। गुप्तकाल के तमाम भग्नावशेष आज भी जिले में बिखरे पड़े हैं। लगभग डेढ़ दर्जन प्राचीन टीले हैं जिसे पुरातात्विक महत्व का मानते हुए पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर रखा है। उत्तर भारत का इकलौता सूर्य मंदिर भी इसी जिले के तुर्कपट्टी में स्थित है। भगवान सूर्य की प्रतिमा यहां खुदाई के दौरान ही मिली थी जो गुप्तकालीन मानी जाती है। इसके अलावा भी जनपद के विभिन्न हिस्सों में अक्सर ही जमीन के नीचे से पुरातन निर्माण व अन्य अवशेष मिलते ही रहते हैं।
कुशीनगर जनपद मुख्यालय पडरौना है जिसके नामकरण के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि भगवान राम के विवाह के उपरान्त माता सीता व अन्य सगे-संबंधियों के साथ इसी रास्ते जनकपुर से अयोध्या लौटे थे। उनके पैरों से रमित धरती पहले पदरामा और बाद में पडरौना के नाम से जानी गई। जनकपुर से अयोध्या लौटने के लिए भगवान राम और उनके साथियों ने पडरौना से 10 किलोमीटर पूरब से होकर बह रही बांसी नदी को पार किया था। आज भी बांसी नदी के इस स्थान को ‘रामघाट’ के नाम से जाना जाता है। हर साल यहां भव्य मेला लगता है जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के लाखों श्रद्धालु आते हैं। बांसी नदी के इस घाट को स्थानीय लोग इतना महत्व देते हैं कि ‘सौ काशी न एक बांसी’ की कहावत ही बन गई है। मुगल काल में भी यह जनपद अपनी खास पहचान रखता था।
खुदाई में प्राप्त स्तूपों के प्राचीनतम अवशेष
साँची स्तूप से प्राप्त प्रथम शताब्दी ईसापूर्व की एक चित्रवल्लरी जिसमें कुशीनगर का ५वीं शताब्दी ईसापूर्व का एक दृष्य अंकित है।
कुशीनगर का प्राचीन वर्णन
ईसापूर्व ५०० में कुशीनगर का मुख्य द्वार (सांची के कुशीनगर के चित्र के आधार पर कल्पित)
कुशीनगर उत्तरी भारत का एक प्राचीन नगर है जो मल्ल गण की राजधानी था। दीघनिकाय में इस नगर को ‘कुशीनारा’ कहा गया है (दीघनिकाय २।१६५)। इसके पूर्व इसका नाम ‘कुशावती’ था। कुशीनारा के निकट एक सरिता ‘हिरञ्ञ्वाती’ (हिरण्यवती) का बहना बताया गया है। इसी के किनारे मल्लों का शाल वन था। यह नदी आज की छोटी गंडक है जो बड़ी गंडक से लगभग १२ किलोमीटर पश्चिम बहती है और सरयू में आकर मिलती है। बुद्ध को कुशीनगर से राजगृह जाते हुए ककुत्था नदी को पार करना पड़ा था। आजकल इसे बरही नदी कहते हैं और यह कुशीनगर से १२ किमी की दूरी पर बहती है।
बुद्ध के कथनानुसार कुशीनगर पूर्व-पश्चिम में १२ योजन लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में ७ योजन चौड़ा था। किन्तु राजगृह, वैशाली अथवा श्रावस्ती नगरों की भाँति यह बहुत बड़ा नगर नहीं था। यह बुद्ध के शिष्य आनन्द के इस वाक्य से पता चलता है- “अच्छा हो कि भगवान की मृत्यु इस क्षुद्र नगर के जंगलों के बीच न हो।” भगवान बुद्ध जब अन्तिम बार रुग्ण हुए तब शीघ्रतापूर्वक कुशीनगर से पावा गए किन्तु जब उन्हें लगा कि उनका अन्तिम क्षण निकट आ गया है तब उन्होंने आनन्द को कुशीनारा भेजा। कुशीनारा के संथागार में मल्ल अपनी किसी सामाजिक समस्या पर विचार करने के लिये एकत्र हुए थे। संदेश सुनकर वे शालवन की ओर दौड़ पड़े जहाँ बुद्ध जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहे थे। मृत्यु के पश्चात् वहीं तथागत की अंत्येष्टि क्रिया चक्रवर्ती राजा की भाँति की गई। बुद्ध के अवशेष के अपने भाग पर कुशीनगर के मल्लों ने एक स्तूप खड़ा किया। कसया गाँव के इस स्तूप से ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है, जिसमें उसे “परिनिर्वाण चैत्याम्रपट्ट” कहा गया है। अतः इसके तथागत के महापरिनिर्वाण-स्थान होने में कोई सन्देह नहीं है।
मौर्य युग में कुशीनगर की उन्नति विशेष रूप से हुई। किन्तु उत्तर मौर्यकाल में इस नगर की महत्ता कम हो गई। गुप्तयुग में इस नगर ने फिर अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में यहाँ अनेक विहारों और मंदिरों का निर्माण हुआ। गुप्त शासकों ने यहाँ जीर्णोद्वार कार्य भी कराए। खुदाई से प्राप्त लेखों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त (प्रथम) (४१३-४१५ ई.) के समय हरिबल नामक बौद्ध भिक्षु ने भगवान् बुद्ध की महापरिनिर्वाणावस्था की एक विशाल मूर्ति की स्थापना की थी और उसने महापरिनिर्वाण स्तूप का जीर्णोद्वार कर उसे ऊँचा भी किया था और स्तूप के गर्भ में एक ताँबे के घड़े में भगवान की अस्थिधातु तथा कुछ मुद्राएँ रखकर एक अभिलिखित ताम्रपत्र से ढककर स्थापित किया था।
गुप्तों के बाद इस नगर की दुर्दशा हो गई। प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन्त्सांग ने इसकी दुर्दशा का वर्णन किया है। वह लिखता है-
इस राज्य की राजधानी बिल्कुल ध्वस्त हो गई है। इसके नगर तथा ग्राम प्रायः निर्जन और उजाड़ हैं, पुरानी ईटों की दीवारों का घेरा लगभग १० मीटर रह गया है। इन दीवारों की केवल नीवें ही रह गई हैं।”
कुशीनगर के उत्तरीपूर्वी कोने पर सम्राट् अशोक द्वारा बनवाया एक स्तूप है।[5] यहाँ पर ईटों का विहार है जिसके भीतर भगवान् के परिनिर्वाण की एक मूर्ति बनी है। सोते हुए पुरुष के समान उत्तर दिशा में सिर करके भगवान् लेटे हुए है। विहार के पास एक अन्य स्तूप भी सम्राट् अशोक का बनवाया हुआ है। यद्यपि यह खंडहर हो रहा है, तो भी २०० फुट ऊँचा है। इसके आगे एक स्तंभ है जिसपर तथागत के निर्वाण का इतिहास है।
११वीं-१२वीं शताब्दी में कलचुरी तथा पाल नरेशों ने इस नगर की उन्नति के लिए पुनः प्रयास किया था, यह माथाबाबा की खुदाई में प्राप्त काले रंग के पत्थर की मूर्ति पर उत्कीर्ण लेख से ध्वनित होता है।
१९वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में ब्रितानी पुरातत्त्वविद अलेक्ज़ैंडर कन्निघम ने पुनः कुशीनगर की खोज की। उनके साथी सी एल कार्लाइल ने धरती के अन्दर से १५०० वर्ष पुरानी बुद्ध का चित्र खोद निकाला। [6][7][8] उसके बाद से यह स्थान एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ बन गया है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि यह स्थान (कुशीनगर) एक प्राचीन तीर्थस्थल है तथा बर्तमान मे कुशीनगर के रामकोला मे शिरडी साईंधाम मंदिर मे प्रति गूरूवार भजन भण्डारे का आयोजन होता है व विश्वदर्शन मंदिर मे पर्यटक आते है तथा अमवा धाम मंदिर धर्मसमधा मंदिर कुबेर स्थान व पुरैनी मेला तथा चेड़ा देवी का भी मंदिर धार्मिक स्थलो मे सुमार है,