पिछली सदी के अंतिम दशक तक विश्व व्यवस्था की दिशा और दशा को तय करने में रक्षा और विदेश नीति की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। परंतु धीरे-धीरे यह परिदृश्य बदलता गया और इसमें आर्थिकी का योगदान भी महत्वपूर्ण होता गया।
पिछले तीन दशकों में दुनिया ने जियो-स्ट्रेटजी और जियो-पालिटिक्स के बहुत से खेल देखे, जिनका गहरा दुष्प्रभाव विश्व व्यवस्था से लेकर वैश्विक राजनीति और मानव जीवन पर भी पड़ा। इनमें से अधिकांश खेल ऐसे थे जिनके दुष्प्रभाव तो दिखाई दे रहे थे, लेकिन इनका संचालन करने वाली शक्तियां अदृश्य थीं। संभवतः इन्हीं शक्तियों को लेकर एक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने अपने विदाई समारोह के अवसर पर यह टिप्पणी की थी कि प्रमुख निर्णय पर्दे के पीछे की शक्तियां लेती हैं, उन्हें (यानी व्हाइट हाउस में बैठे राष्ट्रपति को) तो केवल अवगत कराया जाता है। अब समय बदल चुका है और अदृश्य शक्तियां, दृश्य रूप में दिखने लगी हैं। इसलिए अब पहले की तुलना में जियो-इकोनमिक्स अधिक प्रभावशाली हो गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले कुछ वर्षों से ‘2 प्लस 2’ (अर्थात रक्षा और विदेश नीति) डिप्लोमेसी द्विपक्षीय संबंधों में एक प्रमुख घटक बन चुकी है। लेकिन ऐसा लगता है कि अब समय ‘3 प्लस 3’ डिप्लोमेसी एक निर्णायक चर (वैरिएबल) बन रही है जो नई विश्व व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है।
चूंकि इस तीसरे घटक को भारत के अंदर विश्लेषकों के एक बड़े वर्ग ने गंभीरता से नहीं परखा, इसीलिए जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वाशिंगटन में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में एक प्रश्न के जवाब में यह कहा कि रुपया कमजोर नहीं, बल्कि डालर मजबूत हो रहा है, तो उसे गंभीरता से नहीं लिया गया, बल्कि नकारात्मक नजरिए से भी देखा गया। जबकि वित्त मंत्री के शब्द थे, ‘सबसे पहले, मैं इसे रुपये की गिरावट के रूप में नहीं देखूंगी, इसे मैं डालर की मजबूती के रूप में देखूंगी। डालर की मजबूती में लगातार वृद्धि हुई है। अन्य सभी मुद्राएं मजबूत डालर के मुकाबले प्रदर्शन कर रही हैं। आप जानते हैं, दरें बढ़ रही हैं और एक्सचेंज रेट भी डालर की मजबूती के पक्ष में है। भारतीय रुपये ने कई अन्य उभरती बाजार मुद्राओं की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है।’ इस वक्तव्य को बड़े कैनवास पर देखने की आवश्यकता थी, पर ऐसा हुआ नहीं।
डालरोनामिक्सएक फिर से जियो-इकोनमिक्स की बात करते हैं, ताकि डालर इकोनमिक्स (डालरोनमिक्स) के पीछे के रणनीतिक गणित को समझा जा सके। जियो-इकोनमिक्स ने पिछले 30 वर्षों में जो चिन्ह छोड़े हैं, यदि उनका वृहत विश्लेषण किया जाए तो इस निष्कर्ष तक जरूर पहुंचा जा सकेगा कि युद्ध केवल सैन्य साजोसामान से नहीं लड़े जाते हैं और न केवल युद्ध के मैदान में, बल्कि युद्ध वस्तु, मुद्रा और पूंजी के बाजार में इससे कहीं अधिक निर्णायक तरीके से लड़े जाते हैं।
बीते दशक से लेकर अब तक के बीच चले मुद्रा युद्ध (करेंसी वार) और व्यापार युद्ध (ट्रेड वार) इसके हाल के ही उदाहरण हैं। अभी भी युद्ध के मैदान में लड़े जाने वाले युद्धों का हम एक ही पक्ष देख पाते हैं और वह होता है सत्ता शीर्षों द्वारा लिए गए निर्णय, परंतु उसके पीछे मुद्रा और पूंजी के जो अदृश्य होते हैं, वे सीधे तौर पर दिखाई नहीं देते। इससे जुड़े कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं और ऐसे प्रश्न भी किए जा सकते हैं या पड़ताल की जा सकती है कि बर्लिन दीवार क्यों या कैसे टूटी? सोवियत संघ का पराभव क्यों और कैसे हुआ? क्या ये परिघटनाएं केवल राजनीतिक और सैन्य रणनीतियों का ही परिणाम थीं? स्पष्ट तौर पर नहीं?
यह संघर्ष पूंजीवादी-बाजारवाद और राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बीच था, जिसमें पूंजीवादी-बाजारवाद विजयी रहा था। यही कारण है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद पूरी दुनिया की नियति बनकर छाया और बाजारवाद पूरी दुनिया की नियामक शक्ति होने जैसा प्रदर्शन करता हुआ नजर आया। इसने कई उथल-पुथल पूरी दुनिया को दिखाए जिनमें हुए नुकसान युद्धों से कहीं अधिक थे।
अमेरिका इस खेल का मुख्य खिलाड़ी रहा जिसने आवश्यकतानुरूप मुद्रा और पूंजी बाजारों के मैकेनिज्म को प्रभावित किया। इस समय भी डालर दूसरी मुद्राओं के मुकाबले जो निरंतर ऊपर चढ़ता हुआ दिख रहा है, वह इसी तरह के खेल का परिणाम है, न कि किसी डिवाइन मैट्रिक्स का हिस्सा। हालांकि अभी अमेरिका यह समझना नहीं चाहता कि डालर के ऊपर चढ़ने का तात्कालिक प्रभाव (शार्ट टर्म इम्पैक्ट) वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं, जबकि दीर्घावधिक (लांग टर्म) अमेरिका के हित में भी नहीं होगा।
डालर की मजबूतीइस विषय पर शायद किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि डालर के मुकाबले रुपया अपने ‘सर्वकालिक न्यूनतम स्तर’ पर बना हुआ है। लेकिन यह सिक्के का केवल एक पहलू है। डालर पिछले 22 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है। इसके बावजूद जिस पक्ष को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वाशिंगटन (अमेरिका) में हुई प्रेस कांफ्रेंस के दौरान वक्तव्य के माध्यम से रखा, वह सही है। इसके साथ ही उन कारणों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो बाहर पैदा हुए। इस तथ्य से सभी अवगत ही होंगे कि यूक्रेन युद्ध से एक नया वैश्विक संकट खड़ा हुआ जिसने सप्लाई चेन को प्रभावित किया जिससे प्रभावी मुद्रास्फीति पैदा हुई। इसी से वैश्विक अस्थिरता आई जिस कारण दुनिया की तमाम मुद्राएं डालर के मुकाबले नीचे गिरीं।
भारत यदि वैश्विक सप्लाई चेन का एक सक्रिय और प्रभावशाली घटक है तो स्वाभाविक रूप से भारतीय मुद्रा भी इसमें आने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होगी। इसलिए रुपया भी दबाव में दिखा। उल्लेखनीय है कि यूक्रेन युद्ध जब शुरू हुआ था तब एक डालर 74.64 रुपये के बराबर था अब बीती एक नवंबर को यह 82.53 रुपये के बराबर था। लेकिन रुपये की तुलना में दुनिया की प्रमुख करेंसीज कहीं बहुत अधिक निराशाजनक प्रदर्शन करती हुई दिखीं, फिर वह चाहे ब्रिटिश पाउंड हो, यूरो हो, कनाडियन डालर हो, आस्ट्रेलियन डालर हो, वान हो, येन हो या युआन। यहां एक बात और समझने योग्य है। भारतीय रुपया फरवरी से अब तक डालर के मुकाबले लगभग 10 प्रतिशत गिरा है। जबकि इसी अवधि में ब्रिटिश पाउंड में डालर के मुकाबले लगभग 23 प्रतिशत की गिरावट आई है, यूरो में लगभग 15 प्रतिशत की, जापानी येन में लगभग 20 प्रतिशत की, आस्ट्रेलियाई डालर में करीब 10 प्रतिशत की और चाइनीज युआन में करीब 11 प्रतिशत की। यानी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि वैश्विक मुद्रा बाजार में दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं भी डालर के मुकाबले रुपये की तुलना में कहीं ज्यादा कमजोर प्रदर्शन कर रही हैं।
वैश्विक अर्थव्यवस्था तमाम चुनौतियों का सामना कर रही है। लेकिन फिर भी विशेषज्ञों का एक समूह यह मान रहा है कि दुनिया की जियो-पालिटिक्स अभी इस हद तक खराब नहीं हुई है कि मंदी आ जाए। फिर भी जियो-पालिटिक्स से जुड़ी बहुत सी घटनाएं हैं जो अर्थव्यवस्था के अनुमानों को बदल सकती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि जियो-इकोनमिक्स पर नजर रखने की आवश्यकता होगी, उसे ठीक से समझना होगा।